Wednesday, 10 May 2017

दास्तान ए डेमोक्रेसी

दास्तान ए डेमोक्रेसी





Hello दोस्तों,
आज मैं आपसे अपने इस ब्लॉग ( Rajneetikstudy ) के माध्यम से हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर अपना चिंतन जाहिर करना चाहता हूं । जैसा कि आप जानते हैं कि पांच राज्यों में चुनाव संपन्न हो चुके हैं तथा उनके नतीजे भी घोषित हो चुके है।  जहां उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में BJP को ऐतिहासिक रूप से भारी बहुमत मिला तो वही पंजाब में कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिला। परंतु गोवा तथा मणिपुर की विधानसभा में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला दोनों ही राज्य में कांग्रेस पार्टी पहले पायदान पर तथा बीजेपी दूसरे पायदान पर रही परंतु यहां BJP को केंद्र में सत्ता वह अपनी मजबूत स्थिति का लाभ मिला तथा जोड़-तोड़ व अन्य माध्यमों के द्वारा BJP में इन राज्यों में अपनी सरकार बनाने में कामयाबी रही।

इस बार के चुनावों में जो एक खास व अलग बात देखने को मुझे मिली वह मीडिया का रवैया, इस बार 5 राज्यों में चुनाव थे परंतु मीडिया में चर्चा का विषय केवल उत्तर प्रदेश व उसके बाद पंजाब तक ही सीमित नजर आ रहा था ऐसा लग रहा था मानो जैसे मणिपुर व गोवा में पंचायत चुनाव हो रहा हो।
आज मैं आपसे इसी मणिपुर विधानसभा चुनावों के विषय में बात करने जा रहा हूं। इस बार मणिपुर में एक नए राजनीतिक दल (People's Resurgence and Justice Alliance PRJA ) ने चुनाव में भाग लिया जिसका नेतृत्व इरोम शर्मिला कर रही थी जी हां यह वही 'आयरन लेडी' Irom Chanu Sharmila  है जिन्होंने 16 सालों तक मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम  (Armed Forces Special Power Act) के खिलाफ संघर्ष किया। 

9 August 2016 को उन्होंने अपना 16 साल लंबे उपवास का अंत किया। हालांकि डॉक्टरों द्वारा उन्हें पहले कई बार अपने उपवास खत्म करने की सलाह दी गई थी। परंतु उन्होंने किसी की राय ना मानते हुए इसे अपनी संघर्ष के तौर पर जारी रखने का फैसला किया। परंतु 9 अगस्त 2016 को उन्होंने अपना उपवास खत्म कर दिया शायद वह भी भारतीय राजनेताओं के रवैया से परिचित हो चुकी थी और उन्हें लगने लगा था कि इस उपवास से नेता टस से मस न होने वाले हैं। 

उपवास का अंत कर इरोम ने अपने संघर्ष को एक नए रूप में जारी रखने का प्रण लिया ।
“I will join politics and my fight will continue” 
“There is no democracy in Manipur. I want to be Chief Minister of Manipur and make positive changes”
उन्होंने राजनीति में उतरने का फैसला किया उन्हें लगता था कि जो कार्य नेताओं ने नहीं किया वह स्वयं राजनीति के मैदान में उतर कर जनता के समर्थन के द्वारा उसे अंजाम देंगी । इरोम शर्मिला ने मणिपुर के थोउलबाल सीट से तीन बार से रहे कांग्रेस के मुख्यमंत्री ओक्रम इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ा। उनके चुनाव प्रचार का भी एक अलग ही स्वरुप देखने को मिला जहां वह घर घर जा कर लोगों से खुद को वोट देने की अपील कर रही थी वही कई बार तो वह साइकिल से ही चुनाव प्रचार के लिए निकल जाती थी।


उनके पास न तो बहुत सारा चुनावी फंड था और ना ही किसी कॉरपोरेट घराने का साथ वह केवल अपनी ईमानदारी व संघर्ष के बूते चुनाव में उतरी थी। परंतु मीडिया में कवरेज इस प्रकार हो रही थी जैसे उत्तर प्रदेश व पंजाब के अलावा और कहीं चुनाव ही ना हो रहे हो। इरोम शर्मिला ने अपने चुनाव प्रचार में केवल साठ हजार रुपए खर्च किए।

आप यह तो जानते होंगे कि वह चुनाव हार गई पर क्या आप जानते हैं वह कितने वोट पाने में सफल रही केवल 90, जी हां केवल 90 वोट ही पा सकी आयरन लेडी जिन्होंने अपने जीवन के अमूल्य 16 वर्ष जनता पर हो रहे अन्याय वह जुल्म के खिलाफ लगा दिए उन्हें चुनावों में केवल 90 वोट ही नसीब हुए। चुनाव में पराजय मिलने के बाद इरोम शर्मिला ने कहा कि वह अब कभी किसी भी चुनाव में भाग नहीं लेंगी।

खैर जो हुआ सो हुआ । अब आप यूपी चुनाव में निर्वाचित हुए विधायकों से संबंधित इन आंकड़ों को देखिए

जहां एक और हमारा देश भ्रष्टाचार महंगाई वह बेरोजगारी तथा विभिन्न राज्यों में गुंडागर्दी जैसे समस्याओं का सामना कर रहा है वहीं दूसरी और हमारे प्रतिनिधि के तौर पर किस प्रकार के नेता चुनकर आ रहे हैं। एक और तो हम बड़े बड़े बातें करते हैं कि देश में यह बदलाव होना चाहिए वह बदलाव होना चाहिए और देश का विकास होना चाहिए तथा भारत सुपर पावर बनना चाहिए वहीं दूसरी और हम किन नेताओं को अपने इन सपनों को साकार करने का जिम्मा देते हैं क्या यह नेता वास्तव में हमारे सपनों का भारत हमें देने में सक्षम है हमारा वोट देने से पहले इस बारे में ईमानदारी से सोचना बहुत जरूरी है।
क्या अब भारतीय लोकतंत्र में चुनाव केवल बाहुबल, धनबल तथा मीडिया प्रचार के माध्यम से ही लड़ा जाएगा और क्या नेता जाति और धर्म के आधार पर ही वोट मांगेंगे और जनता भी उन्ही के आधार पर अपना मतदान करेगी। यदि हां तो हमें अपने भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के बारे में एक बार जरुर सोच लेना चाहिए कि भारतीय राजनीति में जिस प्रकार आपराधिक परवर्ती के स्वार्थी वह बाहुबली नेता की संख्या बढ़ती जा रही है आगे चलकर भारतीय लोकतंत्र का क्या भविष्य होगा।

Note :- चुनाव व नेता तथा उनकी पृष्ठभूमि से संबंधित अन्य विभिन्न प्रकार की जानकारियों के लिए आप www.adrindia.org पर जा सकते हैं

Monday, 1 May 2017

लोक प्रशासन का विकास

एक विषय के रूप में लोक प्रशासन का जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ 18वीं शताब्दी के अंत में प्रकाशित विषय विश्वकोश "फैडरलिस्ट" के 72 वे परिछेद में अमेरिका के प्रथम वित्त मंत्री अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने  लोक प्रशासन का अर्थ और क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या की और इसके बाद फ्रेंच लेखक चार्ल्स जीन बैनीन ने इस विषय पर Theory of public Administration  नामक प्रथम पुस्तक लिखी।
परंतु इस शास्त्र के जनक होने का श्रेय प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक वुडरो विल्सन को प्राप्त है जिन्होंने 1887 में प्रकाशित अपने लेख The Study Of Administration में इस शास्त्र के वैज्ञानिक आधार को विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया। लोक प्रशासन के इतिहास या विकास को निम्न चरणों में बांटा जा सकता है


1. पहला चरण (1887-1926)
एक विषय के रूप में लोक प्रशासन का जन्म 1887 से माना जाता है। अमेरिका के प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के तत्कालीन प्राध्यापक वुडरो विल्सन को इस शास्त्र का जनक माना जाता है। उन्होंने 1887 में प्रकाशित अपने लेख "The Study of Administration" में प्रशासन के वैज्ञानिक आधार को विकसित करने पर बल दिया तथा राजनीति और प्रशासन को अलग-अलग बताते हुए कहा "एक संविधान का निर्माण सरल है परंतु इसे चलाना या लागू करना कठिन है" उन्होंने इस चलाने के क्षेत्र के अध्ययन पर बल दिया जो प्रशासन है। उन्होंने राजनीति और प्रशासन में भेद कर इसका अध्ययन किया।
इस चरण के अन्य विचारको में फ्रैंक गुडनाउ हैं जिन्होंने 1900 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "Public Administration" में तर्क प्रस्तुत किया की राजनीति और प्रशासन अलग-अलग हैं क्योंकि राजनीति राज्य की नीतियों का निर्माण है तथा प्रशासन उन नीतियों का क्रियान्वन है।
सन 1926 में एल डी वाइट की पुस्तक "Introduction to the study of Public Administration" प्रकाशित हुई वह लोक प्रशासन की पहली पाठ्य पुस्तक थी जिसने राजनीति प्रप्रशास के अलगाव में विश्वास व्यक्त किया अर्थात राजनीति व प्रशासन का अलग-अलग अध्ययन किया।


2. दूसरा चरण (1927-1937)
लोक प्रशासन के इतिहास में द्वितीय चरण का प्रारंभ हम डब्लू एफ़ विलोबी की पुस्तक "Principles of Public Administration"  से मान सकते हैं। विलोबी के अनुसार लोक प्रशासन में अनेक सिद्धांत ऐसे हैं जिनको क्रियांवित करने में लोक प्रशासन को सुधारा जा सकता है।इस चरण को लोक प्रशासन का सिद्धांतों का काल कहा जाता है।
विलोबी की पुस्तक के बाद अनेक विद्वानों ने लोक प्रशासन पर पुस्तकें लिखनी शुरू की जिनमे- मेरी पार्कर, फोलेट, हेनरी फेयोल, मुने, रायली आदि शामिल है।
1937 में लूथर गुलिक तथा उर्विक ने मिलकर लोक प्रशासन पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक का संपादन किया जिसका नाम "Papers on the Science of Administration" है। इसमें उन सभी सामान्य समस्याओं का अध्ययन किया गया है जिजिन्हे  POSDCORB शब्द में समाहित किया गया हैं। द्वितीय चरण के इन सभी विद्वानों की यह मान्यता रही कि प्रशासन में सिद्धांत होने के कारण यह एक विज्ञान है और इसलिए इसके आगे लोक शब्द लगाना उचित नहीं है। सिद्धांत तो सभी जगह लागू होते हैं चाहे वह लोग क्षेत्र हो या निजी क्षेत्र।

3. तीसरा चरण (1938-1947)
लोक प्रशासन के विकास का तीसरा चरण चुनोतियों का काल कहा जाता है। इस समय में लोक प्रशासन के सिद्धांतों को चुनोतियां दी गई मुख्यता अमेरिकी विद्वान हर्बर्ट साइमन द्वारा लोक प्रशासन के सिद्धांतों को कहावतें कहा गया। सन 1946 में हर्बर्ट साइमन ने अपने एक लेख में तथाकथित सिद्धांतों की हंसी उड़ाई। उन्होंने 1947 में "Administrative Behavior" पुस्तक के अंतर्गत सिद्धांतों की उपेक्षा की। इस विषय के चिंतन को आगे बढ़ाने में साइमन, स्मिथबर्ग और थामसन की "Public Administration"  चेस्टन बर्नार्ड  की "Function of the Executive" तथा हर्बर्ट साइमन की पुस्तक  "Administrative Behavior" का प्रमुख स्थान है।

4. चौथा चरण (1948-1970)
इस काल को पहचान के संकट का काल भी काहा जाता हैं। इस समय में सबसे बड़ी समस्या लोक प्रशासन की पहचान बनाये रखने की थी। इस काल में लोक प्रशासन को राजनीति से अलग न मानकर , राजनीति का ही एक भाग माना गया तथा लोक प्रसासन के सिद्धांतों को नकार दिया तथा इसकी कड़ी आलोचना की गई जिनका जवाब लोक प्रशासन के सिद्धांतों की रचना करने वाले लेखकों के पास नहीं था। इस कारण लोक प्रशासन के सामने पहचान का संकट खड़ा हो गया।

  • प्रथम मिन्नो ब्रुक सम्मेलन (1968)
1960 के दशक के अंतिम वर्षों में अमेरिकी समाज में अशांति का माहौल था। सरकार को चारों ओर से सरकारी अकुशलता गैर उत्तरदायित्व तथा समस्याओं के प्रति लापरवाही के कारण कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था। वियतनाम युद्ध में भारी आर्थिक हानि तथा वाटरगेट स्कैंडल के कारण जनता में गुस्सा बढ़ रहा था। इन सब के खिलाफ युवा पीढ़ी के द्वारा समकालीन समस्याओं के समाधान तथा लोक प्रशासन में सुधार के लिए सन 1968 में प्रथम मिन्नो ब्रुक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में "नवीन लोक प्रशासन" के विचार का समर्थन किया गया। प्रथम मिन्नो ब्रुक सम्मेलन लोक प्रशासन में नवीन परिवर्तनों के लिए जाना जाता है जो इस प्रकार है :-
  • सामाजिक समस्याओं के प्रति प्रासंगिक
  • लोक प्रशासन में नैतिकता का महत्व
  • सामाजिक समानता व न्याय
अतः नवीन लोक प्रशासन के नए दौर की शुरुआत हुई।

नवीन लोक प्रशासन NEW PUBLIC ADMINISTRATION
नवीन लोक प्रशासन का अभिप्राय हैं- किसी भी प्रचलित व्यवस्था में प्राचीन तकनीको या विधियों के स्थान पर नयी  तकनीक एवं विधियों को लागू करना
1960 के दशक के अंतिम वर्षों में विद्वानों ने लोक प्रशासन में मूल्य और नैतिकता पर बल देना आरंभ किया। उन्होंने कहा की कार्यकुशलता ही समूचा लोक प्रशासन नहीं है समस्त प्रशासनिक क्रियाकलापों का केंद्र "मनुष्य" है जो आवश्यक नहीं है कि उन आर्थिक कानूनों जिनका प्रति कार्य कुशलता है, के अधीन ही हो अतः लोक प्रशासन में मूल्य का होना आवश्यक है। इस प्रवृत्ति को नवीन लोक प्रशासन का नाम दिया गया।
  • जहां परंपरागत प्रशासन नकारात्मक था वहीं नवीन लोक प्रशासन सकारात्मक लोक हितकारी तथा आदर्शात्मक है।
  • नवीन लोक प्रशासन विकेंद्रीकरण की धारणा में विश्वास करता है।
  • परंपरागत लोक प्रशासन मूल्य शून्यता दक्षता और तटस्थता में विश्वास करता है जबकि नवीन लोक प्रशासन नैतिकता सामाजिक उपयोगिता और प्रतिबद्धता में विश्वास करता है।


5. पांचवा चरण (1971-1990)
1971 के बाद लोक प्रशासन के अध्ययन में अभूतपूर्व उन्नति हुई। राजनीति शास्त्र के अलावा अर्थशास्त्र मनोविज्ञान समाजशास्त्र आदि के विद्वानों ने भी इसमें रुचि लेना प्रारंभ किया फल स्वरुप लोक प्रशासन अंतर्विषयी Interdisciplinary बन गया। इस समय में लोक प्रशासन की अन्य विषयों से तुलना कर विश्लेषण निकाला जाने लगा।

  • दूसरा मिन्नो ब्रुक सम्मेलन (1988) तथा नवीन लोक प्रबंधन की शुरुआत 
दूसरे मिन्नो ब्रुक सम्मेलन को लोक प्रशासन के विकास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। इस सम्मेलन के परिणाम स्वरुप नवीन लोक प्रबंधन का जन्म हुआ। नवीन लोक प्रबंधन के जन्म का कारण अर्थव्यवस्था का ग्लोबलाइजेशन, बाजार शक्तियों का संवर्धन तथा अहस्तछेप पर जोर व प्रतियोगी व्यवस्था पर जोर को माना जाता है। इस मिन्नो ब्रुक सम्मेलन (1988) में नौकरशाही व्यवस्था की कड़ी आलोचना की गई तथा उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का समर्थन किया गया जेन एरिक लेन के अनुसार "निजी उद्यमों में प्रयुक्त होने वाली प्रबंधकीय तकनीकों को सार्वजनिक क्षेत्र में लागू करना नवीन लोक प्रबंधन है।"
नवीन लोक प्रबंधन के अंतर्गत निम्न बातों पर जोर दिया गया :-
  1.  लागत व्यय को कम कर के लोक प्रशासन को मितव्ययी बनाना।
  2. नीति के स्थान पर प्रबंधन व कार्यकुशलता पर ध्यान केंद्रित करना।
  3. नौकरशाही की नियंत्रण शक्ति के जन्म को कम करना।
  4. प्रबंधन की ऐसी व्यवस्था जिसमें उत्पादन लक्ष्यों आर्थिक, प्रोत्साहन और प्रबंधन संबंधी स्वायत्तता पाई जाती हो।
  5. शासन सरकार के विकेंद्रीकरण में विश्वास।


6. छठा चरण (1991 से अब तक)
1991 के बाद लोक प्रशासन में नए बदलाव देखने को मिले इसी दौर में वैश्वीकरण का प्रचलन काफी तेजी से बढ़ रहा था जिस कारण लोक प्रशासन पर भी इसका स्वभाविक प्रभाव पड़ा अब लोक प्रशासन में निम्न पहलुओं पर जोर दिया जाने लगा :-
  • विकेंद्रीकरण
  • निजीकरण
  • लैंगिक समानता
  • आर्थिक कुशलता
  • उत्पादन में वृद्धि
  • E-Govt.
इसके साथ-साथ अब लोक प्रशासन में "Public Choice Approach" की शुरूआत हो  चली है।

वैश्वीकरण तथा लोक प्रशासन
वैश्वीकरण एक ऐसी परिघटना है जिसके कारण लोक प्रशासन के सिद्धांतिक तथा व्यवहारिक स्वरुप बदल गया है। वैश्वीकरण ने लोक प्रशासन में कार्यात्मक व संरचनात्मक दोनों स्वरुप में परिवर्तन ला दिया है। संरचनात्मक तौर पर कठोर पदसोपान एक और नौकरशाही स्वरूप के स्थान पर अब लचीला कम पदसोपान एक तथा सहभागिता पर अधिक जोर दिया जाने लगा। इसी प्रकार कार्यात्मक तौर पर लोक प्रशासन में लोक सेवा के स्वरुप में परिवर्तन देखने को मिला।
वैश्वीकरण के कारण अब कल्याणकारी राज्य गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर वस्तू व सेवा प्रदान करने लगी। इस प्रकार वैश्वीकरण के दौर में लोक प्रशासन को निजीकरण के सहायता से अधिक समर्थ वह सुगम बनाने का प्रयास किया गया।

  • तीसरा मिन्नो ब्रुक सम्मेलन (2008)
तीसरे मिन्नो ब्रुक सम्मेलन (2008) में, वैश्वीकरण के दौर में लोक प्रशासन को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था उस पर चर्चा की गई इसके अलावा इस सम्मेलन में लोक प्रशासन के भविष्य की रूपरेखा व स्वरूपों पर भी चर्चा की गई। इस सम्मेलन में इस दौर के मुख्य विचारको जैसे -Fredrickson, Rosemary आदि ने भाग लिया इस सम्मेलन में चर्चा के मुख्य बिंदु निम्नलिखित थे :- 
  1.  वैश्वीकरण के बदलते परिदृश्य में लोक प्रशासन की प्रकृति व स्वरूप
  2.  बाजार आधारित नवीन लोक प्रबंधन की जटिलता
  3. Interdisciplinary  अंतर्विषयी लोक प्रशासन के प्रभाव

तीसरे मिन्नोब्रुक सम्मेलन (2008) में इसके मानव स्वरूप को पुनः स्पष्ट करने का प्रयास किया गया जिसे दूसरे मिन्नोब्रुक सम्मेलन में भुला दिया गया था।
इस प्रकार मिलो ब्रुक सम्मेलन के द्वारा लोक प्रशासन को नवीन समस्याओं के प्रति समर्थ व प्रभावशील तथा इसके समाधान के लिए योग्य बनाने की ओर एक प्रयास था

संक्षेप में निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन का एक विषय के रूप में विकास विभिन्न चरणों से होकर गुजरा है इन विभिन्न चरणों में लोक प्रशासन के विषय तथा स्वरूप में भी परिवर्तन देखने को मिला हैं।